तिल्वाडा का मेला राजस्थान मे प्रमुख ग्रामीण मेलों मे से एक है लेकिन अब इस पर बदलते परिवेश कि छाया गहराने लगी है। लूनी नदी के सूखे पाट में बाड़मेर के तिल्वादा गाव में हर साल सजने वाला मल्लिनाथ मेला साल-दर-साल मुरझाने लगा है।
रंग-बिरंगे परिधान ओढ़े ग्रामीणों का रेला, कथा-क्लासिक के पन्नो से निकल जीवंत हुवे हो ऐसे हस्त-पुष्ट मवेशियों के झुंड और कोने-कोने बिखर रह लोक-संगीत का सुर....ये सब महसूस करना हो तो आपको तिल्वादा ग्रामीण मेले कि पुराने पन्ने पलटने होंगे। तब से लूनी के सूखे पाट में पानी तो ज़्यादा नही बहा, परंतु ग्रामीण जीवन के देसी रंगो में टेक्नोलॉजी के रंग जरूर घुलने लगे है.
इस साल यहाँ मेला तो लगा पर लोगो की कम होती रूचि ने कयी माथो पर चिन्ता की लकीर छोड़ दी.
ज़मीनी हकीकत पर पहुचने से पहले आइये थोडा इतिहास और आंकडो में झाँक ले। मीडिया और पर्यटन पुस्तिकाओ में आप तिल्वाडा पशु मेले का ज़िक्र मरू प्रदेश के सबसे बडे मेले के रुप में पायेंगे। भले ही ऊँटो के ब्यूटी पार्लर के चर्चे हो, भारी-भरकम बोली के साथ बिकने वाले मालानी नस्ल के घोडो कि बात हो या कि असली थरपारकर नस्ल कि गाय के दर्शन हो... इसने हमे कयी कहानिया दी हैं।
ग्रामीणों के अनुसार, इस मेले कि शुरुआत १३७४ इस्स्वी में लोक-नायक का दर्ज़ा पा चुके राव मल्लिनाथ द्वारा हूई। उन दिनों मर्वाद और आस-पास कि रियासतो के उम्दा नस्ल के पशुओ कि खरीद-बेचने का ये सबसे जान-माना केंद्र बन गया. हर वर्ष चैत्र सुदी एकादशी से शुरू होने वाला ये मेला १५ दिनों तक लगता है. पर हकीकत में पांच दिन बाद ही मेला बिखरना शुरू हो जता है. मेले के सांतवे दिन कुल जामा १५-२० ऊँटो कि तरफ इशारा करते हुवे स्थानीय निवासी मान सिंह कहते है, “कल तक ये भी अपने गावो का रुख कर लेंगे।”
रोचक पहलू तो ये है कि मान सिंह और दुसरे ग्रामीण मेले कि मन्द होती ‘मादकता’ के लिए ‘मोबाइल’ फ़ोन के बढते इस्तेमाल को ज़िम्मेदार ठहराते है । उनके अनुसार, “वो ज़माना और था जब आपको घोडा, गाय या ऊँट बेचना हो तो आप मेले तक इंतज़ार करते थे और सैकडो किलोमीटर से पशुओं को तिल्वाडा तक ले कर आते थे. अब तो सरकार ने छोटे से गाँवों में भी हर हाथ में ये खिलौना (मोबाइल) पकडा दिया है. पशु-पालक आपस में सम्पर्क में रहते है और सौदा पाटने पर गाव में बैठे ही तय कर लेते है।”
मेला-स्थल के पास चारे कि दुकान पर हो रहे झगडे और लाठी-बाजी कि तरफ इशारा करते हुवे हरी सिंह कहते है कि राज के समय में राजपूतो द्वारा मेले कि सुरक्षा का जिम्मा उठाया जता था। अब सामाजिक व्यवस्था के ताने-बाने उतने मजबूत नही रहे और मेले में खरीददारी के लिए आने-वालो को याहा या फिर रास्ते में लुटने का भय भी रहता है।
ग्रामीण प्रकृति के संकेतो को अक्सर अपने आस-पास घटने वाली असामान्य घटनाओ से जोड़ कर देखते है. आम दिनों में कई मीटर तक सूखी रहने वाली लूनी नदी मेले के दौरान ग्रामीणों के कोतुहल का विषय बन जाती है. लगभग ७ फ़ीट गहरे ताजे-खुदे खड्डे में से मवेशियों के लिए पानी निकलते जगदीश इस कौतुहल को स्पष्ट करते हेई. “मेले के दिनों में आप को याहा थोडा-सा खोदने पर ही पीने लायक पानी मिल जाता है। ये सब मल्लिनाथ जी कि कृपा है.”
अपनी मुछो के किनारो भाले सी नुलीली बनाते मान सिंह कहते है, “फोटो खीच लो क्यूंकि इस मेले से अब आपको मुछे भी गायब होती नज़र आएँगी. मुछो कि ज़गाह मोबाइल आ गए, मल्लिनाथ-मेले के कुवो में मैल आने लगा हेई और थोड़े दिनों में मेले कि जगह माल आ जायेंगे.” .... बात में दम है!
1 टिप्पणी:
सही व सटीक लेख है।प्रगति की दोड़ मे एसे मेले अब पीछे छूटते जा रहे हैं। और ना ही मीडिया वाले इन को प्रचारित करने में रूची ही लेते हैं।
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