गुरुवार, 24 मई 2007

बच्चे बने बैरक की रौनक


बाड़मेर जिले में भारत-पाकिस्तान सीमा से सटे रामसर कस्बे की पहचान मांगनियार समुदाय के उन गायकों के कारन विश्व-स्तरीय है जिनके लिए यह अतिशयोक्ति सत्य प्रतीत होती है की मांगनियार बच्चे जन्म से ही अच्छे गायक होते हैं और उनका पहला रुदन भी सुरीले गायन की तेरह होता है. यहाँ एक पुलिस अधिकारी की अनूठी पहल ने राम्सर पुलिस थाने को भी ‘सुरीला’ बाना दिया है. गत कई महिनो से यहाँ हथकड़ी की गूँज और बेंत की फटकर की जगह ‘अनार’ – ‘आम’ का सुरीला गान गूँज रह है. ईस पुलिस थाने का बैरक एक क्लास-रूम की शक्ल अख्तियार कर चुका है और पुलिस वालों ने मास्टर जी की भूमिका भी निभानी शुरू कर दी है.

पहल के सूत्रधार और रामसर के पूर्व- थानाधिकारी सुरेन्द्र कुमार जब गर्मिओं के बावजूद ९० बच्चों की उपस्थिति देखते हैं तो उनकी ख़ुशी छुपाये नही छुपाती. वे बताते हैं, “जो लोग पहले थाने के दरवाजे तक आने में भी घबराते थे उन्हें अब उनके बच्चे हाथों में हाथ डाले हर सुबह याहा तैयार मिलते है. ये एक सुखद एहसास है.”

जब उन्होने इस थाने का चार्ज संभाला तो छोटे से कस्बे का दौरा करते हुवे एक बात नज़र आयी. कुमार के शब्दों में, “मैंने यह देखा की गाँव में बहुत से बच्चे स्कूल जाने के बजाय इधर उधर भटक रहे हैं. फिर यह बात भी देखने में आयी की कई लड़के बीडी-गुटखे का सेवन करते थे वहीँ कुछ लडकियां ज़र्दे की आदि पायी गयीं.”

दरअसल मांगनियार समुदाय के सुरीले सफ़र का यह एक दुखद पहलू है. संगीत महोत्सवों के बार-बार फेरों ने इन परिवार के युवा गायकों के पासपोर्ट भले ही भर दिए हो पर आर्थिक तंगी के चलते बैंक के खाते अक्सर खाली ही रहते है. सामाजिक-आर्थिक दृष्टि से पिछड़े इस इलाक़े में जागरुकता इतनी कभी नही रह की सरकारी नारों से प्रभावित माता-पिता अपने बच्चों को स्कूल भेजे.

कुमार के अनुसार, “जब कुछ परिवारों के साथ बात-चीत में बच्चों की पढ़ाई का मुद्दा उठाया तो यही जवाब मिल की आख़िर स्कूल जाने से क्या हासिल होगा?” दूसरी तरफ, रामसर थाना क्षेत्र अपराधिक गतिविधिओं की दृष्टि से कुछ खास हलचल भरा नही मिल. सं २००५ में यहाँ कुल ९१ मामले दर्ज हुवे जो कोई बड़ी संख्या नही है. कुमार ने तय किया की ‘सोशल पुलिसिंग’ के किताबी सबक को कुछ नए तरीके से आजमाया जाये. थाने का बैरक जो अक्सर खाली ही रहता था, उसकी साफ-सफ़ाई कर दीवारों पर पोस्टर सजाये गए. बच्चों की खातिरदारी के लिए टॉफी और फलों की व्यवस्था की गयी. बच्चो और पुलिस के बीच यह मधुर संबंध वैलेंटाइन के दिन शुरू हुआ जब बच्चों को थाने में आने के लिए आमंत्रित किया गया.

शुरूआती दौर में बच्चों ने कोई खास उत्साह नही दिखाया. अच्छे खासे प्रयासों के बावजूद पहले दिन सिर्फ १२ बच्चे ही जुट पाये और उनमे एक भी लडकी नही थी. कुमार के अनुसार, “नशा करने वाले कई बच्चे पिटायी के दर से नही आते थे और सच बतायें तो उन दिनों तो हमारे वर्दी-धारी शिक्षकों नें भी पुलिसिया अंदाज़ में बीडी-गुत्खो की ‘बरामदगी’ कई बच्चो की जेबों से कर ली थी.”

कुछ ही दिनों मे थाने में होने वाली ‘खातिरदारी’ के चर्चे सभी बच्चो में पहुंच गए और ये संख्या इतनी तेजी से बढने लगी की अब तो दूसरी स्कूलों के कयी बच्चे ‘थाना विद्यालय’ मे आ रहे है. हालांकि प्राथमिकता उन्ही बच्चो को मिलती जो किसी विद्यालय मे नही जा रहे हो.

थाना विद्यालय में बच्चों को खेल-खेल में रोजमर्रा की चीजों के बारे मे बताते हुवे भाषा, गणित और विज्ञान की मूलभूत बाते सिखायी जाती है. नाश्ते में जब फल दिया जाते है तो उन्हें भी बारह्खादी के अक्षरों से जोड़ कर ‘खिलाया’ और ‘सिखाया’ जता है. “पहला ही दिन भावुक कर देने वाला रह जब ‘आ’ से ‘अनार’ सिखाने के बाद यह फल खाने को दिया गया तो सभी बच्चों नें खाने में हिचकिचाहट दिखायी क्योकि उन सभी ने यह फल पहली बार देखा था.

थाने के सिपहिओं में सभी ने इस नयी भूमिका को सहज ही अपना लिया और वे इसकी व्यवस्थों के लिए धन का सहयोग भी अपनी जेब से करने लगे. ऐसा नही है की सब कुछ सकारात्मक ही रह. विभाग के कुछ साथियों ने कुमार को समझाया की बिना मतलब के ‘पंगे’ लेने से बेहतर है की वे इस ‘फुर्सत’ भरी पोस्टिंग का अनंद उठाये. सकारात्मक पहलु ये की वरिष्ठ अधिकारी उनकी इस पहल में साथ रहे।


परंतु इससे भी कही संतुष्टि देने वाले पल तो पहले ही हासिल हो चुके है. सुरेन्द्र कुमार वो दिन याद करते है जब थाने के “अपना विद्यालय” मे पढने वाले एक विद्यार्थी ने पारिवारिक मामले को सुलझाने के लिए पहल की. “वो बच्चा अपने पिता को खीच कर थाने ले आया और हमारे सामने आते ही उनसे बोला की थानेदार जी मेरे दोस्त हैं, आप इनके सामने सम्झोता कर लो. उस दिन लगा की विद्यालय शुरू करने का उद्देश्य सफल रह. दरअसल हमारे विद्यार्थी हमारे नन्हे दूत बन चुके हैं.” …उम्मीद की जानी चाहिऐ की पुलिस-पब्लिक संबंधो की ये दास्ताँ कयी सुखद पडाव तय करेगी.

मंगलवार, 22 मई 2007

गाँव की गोरी मेले में


तिल्वाडा का मेला राजस्थान मे प्रमुख ग्रामीण मेलों मे से एक है लेकिन अब इस पर बदलते परिवेश कि छाया गहराने लगी है। लूनी नदी के सूखे पाट में बाड़मेर के तिल्वादा गाव में हर साल सजने वाला मल्लिनाथ मेला साल-दर-साल मुरझाने लगा है।


रंग-बिरंगे परिधान ओढ़े ग्रामीणों का रेला, कथा-क्लासिक के पन्नो से निकल जीवंत हुवे हो ऐसे हस्त-पुष्ट मवेशियों के झुंड और कोने-कोने बिखर रह लोक-संगीत का सुर....ये सब महसूस करना हो तो आपको तिल्वादा ग्रामीण मेले कि पुराने पन्ने पलटने होंगे। तब से लूनी के सूखे पाट में पानी तो ज़्यादा नही बहा, परंतु ग्रामीण जीवन के देसी रंगो में टेक्नोलॉजी के रंग जरूर घुलने लगे है.

इस साल यहाँ मेला तो लगा पर लोगो की कम होती रूचि ने कयी माथो पर चिन्ता की लकीर छोड़ दी.
ज़मीनी हकीकत पर पहुचने से पहले आइये थोडा इतिहास और आंकडो में झाँक ले। मीडिया और पर्यटन पुस्तिकाओ में आप तिल्वाडा पशु मेले का ज़िक्र मरू प्रदेश के सबसे बडे मेले के रुप में पायेंगे। भले ही ऊँटो के ब्यूटी पार्लर के चर्चे हो, भारी-भरकम बोली के साथ बिकने वाले मालानी नस्ल के घोडो कि बात हो या कि असली थरपारकर नस्ल कि गाय के दर्शन हो... इसने हमे कयी कहानिया दी हैं।


ग्रामीणों के अनुसार, इस मेले कि शुरुआत १३७४ इस्स्वी में लोक-नायक का दर्ज़ा पा चुके राव मल्लिनाथ द्वारा हूई। उन दिनों मर्वाद और आस-पास कि रियासतो के उम्दा नस्ल के पशुओ कि खरीद-बेचने का ये सबसे जान-माना केंद्र बन गया. हर वर्ष चैत्र सुदी एकादशी से शुरू होने वाला ये मेला १५ दिनों तक लगता है. पर हकीकत में पांच दिन बाद ही मेला बिखरना शुरू हो जता है. मेले के सांतवे दिन कुल जामा १५-२० ऊँटो कि तरफ इशारा करते हुवे स्थानीय निवासी मान सिंह कहते है, “कल तक ये भी अपने गावो का रुख कर लेंगे।”


रोचक पहलू तो ये है कि मान सिंह और दुसरे ग्रामीण मेले कि मन्द होती ‘मादकता’ के लिए ‘मोबाइल’ फ़ोन के बढते इस्तेमाल को ज़िम्मेदार ठहराते है । उनके अनुसार, “वो ज़माना और था जब आपको घोडा, गाय या ऊँट बेचना हो तो आप मेले तक इंतज़ार करते थे और सैकडो किलोमीटर से पशुओं को तिल्वाडा तक ले कर आते थे. अब तो सरकार ने छोटे से गाँवों में भी हर हाथ में ये खिलौना (मोबाइल) पकडा दिया है. पशु-पालक आपस में सम्पर्क में रहते है और सौदा पाटने पर गाव में बैठे ही तय कर लेते है।”


मेला-स्थल के पास चारे कि दुकान पर हो रहे झगडे और लाठी-बाजी कि तरफ इशारा करते हुवे हरी सिंह कहते है कि राज के समय में राजपूतो द्वारा मेले कि सुरक्षा का जिम्मा उठाया जता था। अब सामाजिक व्यवस्था के ताने-बाने उतने मजबूत नही रहे और मेले में खरीददारी के लिए आने-वालो को याहा या फिर रास्ते में लुटने का भय भी रहता है।


ग्रामीण प्रकृति के संकेतो को अक्सर अपने आस-पास घटने वाली असामान्य घटनाओ से जोड़ कर देखते है. आम दिनों में कई मीटर तक सूखी रहने वाली लूनी नदी मेले के दौरान ग्रामीणों के कोतुहल का विषय बन जाती है. लगभग ७ फ़ीट गहरे ताजे-खुदे खड्डे में से मवेशियों के लिए पानी निकलते जगदीश इस कौतुहल को स्पष्ट करते हेई. “मेले के दिनों में आप को याहा थोडा-सा खोदने पर ही पीने लायक पानी मिल जाता है। ये सब मल्लिनाथ जी कि कृपा है.”


अपनी मुछो के किनारो भाले सी नुलीली बनाते मान सिंह कहते है, “फोटो खीच लो क्यूंकि इस मेले से अब आपको मुछे भी गायब होती नज़र आएँगी. मुछो कि ज़गाह मोबाइल आ गए, मल्लिनाथ-मेले के कुवो में मैल आने लगा हेई और थोड़े दिनों में मेले कि जगह माल आ जायेंगे.” .... बात में दम है!

श्री मोटरसाईकिल जी का मंदिर


अजूबों की भरमार है जी यहाँ पर क्या भूलें क्या याद करें हम। पिछले दिनों जाना हुआ राजस्थान में जोधपुर से पाली शहर कि तरफ तो नेशनल हाईवे के किनारे पाली से लगभग २० किलोमीटर पहले एक अलग ही तरह का मंदिर देख कर थोडा चौंक गए।

मंदिर दरअसल है एक इंफील्ड मोटरसाईकिल का। बाकायदा ॐ बन्ना का मंदिर एक चबूतरे के साथ स्थापित कि गयी एक पुरानी बुल्लेट मोटरसाईकिल के साथ आपका ध्यान आकर्षित करता है।


आस पास बात करने पर पता चला कि कई वर्ष पहले इस हाईवे पर एक दुर्घटना में ॐ सिंह नाम के एक मोटरसाईकिल सवार की मृत्यु हो गयी। पुलिस ने सामान्य दुर्घटना की तरह मामला दर्ज़ कर तफ्तीश शुरू कर दी। मोटरसाईकिल को ज़ब्त कर पुलिस स्टेशन पर रखवा दिया।


मामले ने रहस्मय मोड़ तब लिया जब हर तरह की कोशिशो के बाद भी इस मोटरसाईकिल को लोकल पुलिस स्टेशन पर नही रखा जा सका। मंदिर पर मोटरसाईकिल पर पुष्प-माला अर्पित कर रहे कई ट्रक चालकों में से एक से बात करने पर पता चला कि बार-बार लाक लगा कर रखने पर भी इस मोटरसाईकिल को बिना ड्राइवर के हाईवे पर पहूंच जाने के बाद गाव वालों ने तय किया कि मोटरसाईकिल को दुर्घटना स्थल पर ही रहने दिया जाये और आज लगभग १४ वर्षों से आस्था के चलते हाईवे पर आने-जाने वाले ज्यादातर वाहन यहाँ पर रुकते है और पूजा पाठ कर आर्शीवाद लेते है।


है ना रोचक...नही है तो भी मान भी जाइए. ...और समय मिले तो इस मंदिर के दर्शन का चले आइये।

सोमवार, 21 मई 2007

दैनिक भास्कर में आयी ब्लोग की खबर


ऐसा लगता है ....कैसा लगता है?


समाचार पत्रों को ब्लोगिन्ग के प्रयोग सुहाने लगे हैं।


आज कि ताज़ा खबर राजस्थान में दैनिक भास्कर के हवाले से।

झाड़ू का मयूज़ियम

बात herri पॉटर शृङ्खला के प्रसंग जितनी रोमांचक नही, जहाँ तिलस्मी झाड़ू के सवार हवाई कलाबजिया दिखाते हैं… ना ही ये उन लोक-कथाओं जितनी rahasya वाली है जहाँ एक जादूगर को सबक सिखाने के लिए झाड़ू के तिनके काम आते हैं. पर राजस्थान कि धरती से सामने आ रही कुछ परम्पराएं कम रोचक नही है. पेश है एक झलक: सुरत्गढ़ के गाव में नयी झाड़ू को “कुंवारी” मानते हुवे उसे काम मे नही लेते. झाड़ू का अगला हिस्सा जला कर उसकी “शादी” कर दी जाती हेई और लीजिये झाड़ू सफ़ाई करने को तैयार है. जोधपुर के पुराने शहर में अगर बरसात हो रही हो और आप छत पर झाड़ू निकलने लगें तो समझ लीजिये कि आपने एक सामाजिक अपराध करने का दुस्साहस कर डाला है.

झाड़ू के जितने तिनके, राजस्थान में उनसे जुडी हैं उतनी ही मान्यताएं. Rupayaan संस्थान के संस्थापक और जाने मने लोक-कलाविद कोमल कोठारी ने इन्हें जाना तो लगा मनो उन्हें सामाजिक इतिहास में झाकने के लिए एक झरोखा मिल गया हो! उन्होने राजस्थान कि लोक कथाओं और संगीत के मोती सहेजते-बुनते हुवे एक सपना देखा और अब wo सपना जोधपुर में एक अनूठे झाड़ू sangrahalaya के रुप में साकार होने जा रह है।

पुलिस ब्लोग कि चर्चा इंडिया टूडे पत्रिका में




इंडिया टूडे के ताज़ा अंक में बाड़मेर के श्री नितिन दीप द्वारा शुरू किये गए भारत के पहले हिंदी पुलिस ब्लोग कि चर्चा है...


बिरमा राम जी जल्द आपके रूबरू


लगता है कि मित्रों को बाड़मेर के श्री बिरमा राम कि कथा पसंद आ रही है। आपकी जिज्ञासा शांत करने के लिए उनसे जुडी कुछ मजेदार बाटी और फोटो पेश किये जायेंगे।


वैसे संतानों के मामले में बिरमा राम को खासा इंतज़ार करना पड़ा. उनकी पहली शादी मालू देवी से हुई. कई सालों तक संतान नही होने पर मालू देवी ने अपनी चचेरी बहिन जमना देवी को अपनी सौतन स्वीकार किया और उससे बिरमा जी की दूसरी शादी हुई. जमना देवी कुछ ही सालों मे चल बसी और संतान की आस अधूरी ही रही. फिर आज से लगभग २३ साल पहले बीस वर्षीया गमू देवी उनकी तीसरी पत्नी बन घर में आयी और अब लडकी कि पैदाइश के१६ साल बाद पुत्र रत्न के जन्म पर घर में ख़ुशी का माहौल है. पहली पत्नी मालू देवी अब ८२ वर्ष की हैं और इन दिनों वे अपने से आधी उमर कि सौतन के साथ नए मेहमान कि कुशियन बाँट रही हैं. नन्हे बच्चे का नाम भोमा रखा गया है. उसे बूढी आंखो से निहारती हुवे मालू देवी कहती हैं, “घर में भैयु आयो है।”


आम तौर पर जिस आयु में भजन-कीर्तन और माला फेरने का काम ही मुख्य माना जाता है, उस उमर में भी बिरमा राम कि दिनचर्या नव-विवाहित युवक जैसी है. अपनी यौन सक्रियता का वर्णन करते हुवे वे कहते हैं, “माला जपने का काम तो वो करते हैं जिनके अंग काम करना बंद कर चुके हो. में तो अब भी रात को खात पर झूठ ही आंखें मूँद कर घर के बच्चों के सोने का इंतज़ार सिर्फ इसलिये करता हूँ ताकि उसके बाद अपनी पत्नी का साथ प सकूं.” इस सपाट बयानी के चलते ही गाँव के कुछ युवा बिरमा को ‘बुजुर्ग आशिक’ का उपनाम दे चुके हैं. गाँव में टेलीफोन बूथ संचालित करने वाले हर्खा राम बताते हैं कि १९ जुलाई कि रात बेटा होने कि ख़ुशी में बिरमा ने गाँव वालो को अच्छी-खासी दावत दी थी. वे बताते हैं, “गाँव के युवा उनसे टिप्स लेना चाहते हैं तो वे उन्हें सीख देते हैं कि नशा-पत्ता मत करो, मेहनत करो और जम कर ख़ुराक लो।”


ग्रामीण जीवन शैली के साथ अपनी खेती-बाड़ी संभाल रहे बिरमा राम के लिए रोजाना २०-२५ किलोमीटर पैदल चलना बड़ी साधारण बात है. चेहरे पर झुर्रियां ज़रूर हैं पर रॉब-दाब माँ कोई कमी नही आयी है. आस-पास के गाँव में आपसी मामलो को सुलझाने के लिए पंचायत बुलायी जाती है तो उन्हें ज़रूर याद किया जता है. ग्रामीण बताते हैं कि बिरमा चौह्तन पुलिस थाने को भी यदा-कादा अपनी सेवायें “पागी” के रुप में देता है. “पागी” उन्हें कहते हैं जो पद-चिन्हों को पहचान कर घटना का सुराग देने में माहिर होते हैं।


छाया- साभार अनिल छंगानी

गुरुवार, 17 मई 2007

सत्संग कि उमर में Santaan


“बुधिओं का टला”-इस राजस्थानी नाम का मोटा-मोटा अर्थ निकला जाये तो ये वोह जगह होगी जहाँ के अधिकांश निवासी बूढ़े हो. लेकिन इस नाम वाला, बाड़मेर ज़िले का, एक गावं युवाओं के लिए एक पहेली बन चुक्का है. हाल ही में गावं के ८८ वर्षीया बिरमा राम कि तीसरी पत्नी ने जुड़वाँ पुत्रो को जन्म दिया और अपनी ‘सक्रियता’ के लिए विख्यात इस “चिर युवा” कि उपलब्धियों में नवीनतम अध्याय जुड़ गया.

भारत-पाकिस्तान सीमा से जुडे थार रेगिस्तान में बिखरे कच्चे मकानों वाले लगभग गुमनाम से इस गावं का नाम खबरों मे लाने वाले बिरमा राम श्रीलाल शुक्ल के प्रसिद्ध हिंदी उपन्यास “राग दरबारी” के वेध्या जी के उस सिद्वांत को जीते हुवे प्रतीत होते हैं कि, “जीवन में सबसे बड़ी बात है वीर्य कि रक्षा. इसे बचा लिया तो समझो सब-कुछ बच गया.”

बिरमा राम के दावे को मने तो ये घटना और भी अविश्वसनीय लगती है. “दरअसल मेरी उमर ९० साल है. सरकारी रेकॉर्ड में ये गलती से दो साल कम लिखी हुई है. जब में ७४ साल का था तो मेरे पहली संतान- एक बेटी हुई. इसके बाद अब मेरे जुड़वाँ बेटे हुवे. एक कि जन्म के कुछ घंटों बाद ही मौत हो गयी. दूसरा एक दम स्वस्थ है. अब आगे भी में कोई बंदिश नही चाहता. भगवन चाहेगा तो और बचा हो जाएगा,” बिरमा राम केमरा के सामने पोज़े देने से पहले कंघी निकाल कर अपनी मूंछेंसवारते हुवे बताते हैं.

हिंदी का पुलिस ब्लोग

पिछले छिट्ठे के जवाब में मिले रेसपोंस को देख कर उत्साह बढ़ा। मित्रों ने आशंका जतायी है कि ऐसे प्रयास लंबे समय तक चलें या ना चलें क्या पता? नितिन दीप जी से मिल कर तो उम्मीद बांधती है कि ऐसा ही होगा। आप और हम उत्साह बधायेंगे तो ये लंबी दौड़ पर निकलेगा।

भारत का पहला हिंदी पुलिस ब्लोग

यदि हम आपसे पूछे कि बोस्टन मेट्रोपोलिटन पुलिस, कर्नाटक के उदुपी और चित्रदुर्गा जिला पुलिस और जाने-माने लोस एंजेलेस पुलिस विभाग में क्या समानता है तो आप शायद सिर खुजलाने को मजबूर हो जाये. एक दुसरे से लाखो मील दूर अलग-अलग कानूनों के तहत काम करने वाले ये पुलिस विभागो को एक-सूत्र में ये बात पिरोती है कि इन सभी ने जनता और पुलिस के बीच कि खायी को पाटने के लिए सुचना टेक्नोलॉजी का सूझ-बूझ भरा उपयोग किया है। अधिक जानकारी के लिए www.barmerpolice.blogspot.com देखें।

सोमवार, 7 मई 2007

मुझे याद आते हैं आप


हथेलियों की धुन्धलाती लकीरों के बीच इक अक्स उभर आता है,
उदास दुपहरी का सन्नाटा चीखती मुस्कराती यादों से भर जाता है ।

मैं जितना भुलाना चाहूँ उतनी ही तीखी चुभती हैं शमशीरें,
मैं जितना अनदेखा करूं उतनी ही गहरी होती जाती हैं तसवीरें।

आपका काँपता हाथ जब भी छू जाता था, कुछ बातें कह जाता,
पर लापरवाही के मद में मैं, उनको छूने से रह जाता ।

आज मुझे याद आती है हथेलियों की जुबां से निकलती बातें,
आज मुझे सताती हैं वो जो आपसे ना हो सकी वो मुलाकातें ।


मेरी हताशा, मेरी निराशा को आज भी आपके बोलों का सहारा है

मेरे मन का हर इक अंधियारा आप ही के उजालो से हारा है ।


मैंने आपका पाया अक्स और वो ही अक्स आपका पोता है लाया

मैं कैसे भूलूं आपको, हर क्षण जीवन का मैंने आपसे है पाया ।


घर के आंगन में चाहा आपने मम्मी हो खुश और बहू सुशील

चाहा आपने सब बच्चों को कोई कमी नहीं हो 'फील' ।


आपने जो देखा था सपना, देखो तो अब वो सच होने लगा है
खुशिया हैं सारी पास फिर भी क्यूँ आज दिल रोने लगा है ।


पापा जी! पर मैं आदत से बाज नही आया हूँ अब तक

माँगता ही रहूंगा कुछ आपसे, सांस चलेगी तब तक ।


गदहा पच्चीसी के दौर में मुझसे हुयी भूलों को आप भुला दो

आज फिर मुझे याद आते हैं आप, प्लीज़ मुझे रुला दो ।




शुक्रवार, 4 मई 2007

गिद्ध


जिन लोगों को भूख सताए, मत दो उनको कोई निवाला।

झूम रहे जो लोग नशे में, फिर से भर दो उनका प्याला।।


रोष में देखो लोग खडे हैं, पकडा दो तुम उनको पत्थर।

कोशिश कर के देखो ज़रा, यदि जला दें वे कुछ-इक घर॥


जिस घर से धुआं दिखता हो, चलो वहाँ पर आग दिखा दें।

जहाँ नज़र आता हो कुँआ, जा कर उसमें भांग मिला दें॥


ढूंढें सरकते पल्लुओं, सिसकते चेहरों और सनसनी को।

नहीं मिले तो सरकाओ या सिसकाओ और पैदा करें॥

ब्रेकिंग न्यूज़, एक्सक्लूसिव और सिर्फ इसी चैनल पर।

सारे चैनल तरस रहे हैं चौबीस घंटो मसाले को॥


गिद्ध भोज की भाग-दौड़ में, कौन संभाले गिरतों को।

मत उठाओ, क्लिक करो बस, खबर अपनी बनाने को॥



फोटो साभार - डाक्टर छंगानी







गुरुवार, 3 मई 2007

क्यूँ आता नहीं बसंत

क्यूँ आता नहीं बसंत ...

जब भी चलती सर्द हवाएं
विपदा और व्यथा की
मैं ह्रदय तरु से जा मिलाटा
और
करता बात ह्रदय
पर एक बात से कर देता वो
सब बातों का अंत
पतझड़ हुआ बरसो बीते
क्यूँ आता नहीं बसंत।